RUH AUR INSAAN

मैं तो तेरे साथ प्रिय,
रब जुदा जिस्म से कर डाला,
कैसे रूह का रूप दिखाऊँ,
तुझे बनाऊं मतवाला।

हमपर लाखों पहरे कलतक,
आज ना कोई है बंदिश,
मगर जिस्म के बिना मैं पगली,
तेरे प्रेम से है बंचित,
गम की दरिया तेरी किश्ती,
मैं थी तेरी एक आशा,
चौखट तू गमगीन जश्न का,
मुझ बिन सुनी मधुशाला
अब ना हुश्न हमारा साथी,
ना कजरारी आँखे हैं,
ना लहराती मेरी जुल्फें,
महक भरी ना साँसे हैं,
तुमको शांत करूँ अब कैसे,
मय की टूटी मैं प्याला,
कैसे रूह का रूप दिखाऊँ,
तुझे बनाऊं मतवाला।

काश कि जिस्म हमारी होती,
तुमको गले लगा लेती,
रोते दिल की महफ़िल फिर से,
खुशियों से महका देती,
तेरी तड़प सही ना जाए,
रूह हमारी जलती है,
बिना जिस्म के पगली जैसी,
हालत मेरी रहती है,
कितना प्यार तुझे करती मैं,
तुझे बताऊँ मैं कैसे,
कितना तड़पायी मैं तुमको,
उसे भुलाऊं मैं कैसे,
आज खड़ी मैं तेरे आगे,
आँसूं पोछ नहीं सकती,
तेरी दुनियाँ छीन के रब से,
वापस ला भी नहीं सकती,
बस कर रोना मुझे भुला दो,
मैं ना तेरी अब हाला,
कैसे रूह का रूप दिखाऊँ,
तुझे बनाऊं मतवाला।

!!! मधुसूदन !!!

24 thoughts on “RUH AUR INSAAN

    1. धन्यवाद आपका —-समय निकाल हौसला बढ़ाने से नहीं चुकती आप।धन्यवाद आपका।

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